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चीन पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर के रास्ते आर्थिक गलियारा विकसित कर रहा हो और रूस के जुबां पर ताले लगे हों? पाकिस्तान की नापाक हरकतों से देश हलकान हो लेकिन कथित रूप से गुट निरपेक्ष के झंडाबरदार देशों ने अपने मुंह सिल रखे हों, तब भारत क्या करे? ऐसी निरपेक्षता किस काम की? हमने इसी द्वंद्व में दशकों गंवा दिए। भारत की अमेरिका से बढ़ती नजदीकियां बुद्धिजीवियों के एक तबके को रास नहीं आ रही है। एक अंग्रेजी अखबार के पूर्व संपादक ने तो प्रधानमंत्री के इस बार गुटनिरपेक्ष देशों के सम्मेलन में भाग न लेने पर कहा-‘मोदी जब ऐसा करते हैं यह वक्तव्य होता है। खासतौर पर जब वह विदेश यात्राओं के शौकीन हैं।Ó शायद ये कूटनीति के बदले अंदाज को भांप नहीं सके हैं। नरेंद्र मोदी जब भी विदेश जाते हैं, उसके पीछे एक मकसद होता है। वह चीन और पाकिस्तान से मिल रही चुनौतियों से निपटने को दुनिया के हमविचार देशों को एक कड़ी में पिरोना चाहते हैं। साझा मूल्यों के आधार पर एक ऐसा मंच खड़ा करने चाहते हैं जो किसी भी कार्रवाई का पूरे दमखम से जवाब दे सके। इन देशों की आपस में सशक्त सामरिक भागीदारी हो और ये अपनी सुरक्षा संबंधी चुनौतियों से मिलकर निपट सकें। मोदी इसमें काफी हद तक कामयाब होते दिख रहे हैं। अब अगर अमेरिका के विदेश मंत्री जॉन कैरी ने मिस्त्र के राष्ट्रपति अब्देल फतह अल सीसी से मुलाकात को अपनी भारत यात्रा दो दिनों के लिए बढ़ा दी तो इसमें क्या गुट निरपेक्ष आंदोलन की अहमियत थी? शायद नहीं। जॉन कैरी ने आइआटी दिल्ली में दिये गये अपने संबोधन में बिल्कुल ठीक कहा कि भारत और अमेरिका ने इतिहास की हिचकिचाहट से पिंड छुड़ा लिया है। भारत ने पाकिस्तान व चीन के साथ बेहतर संबंध बनाने को हरसंभव प्रयास किए किंतु दोनों देशों के रुख में कोई बदलाव नहीं आया। उल्टे दोनों भारत के खिलाफ खुलकर सामने आ गये। जब भारत एक कोने में धकेला जाने लगा, तब उसने आक्रामक विदेश नीति अख्तियार की। अमेरिका से हाथ मिलाया, पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में तिरंगा फहराने का संकल्प दोहराया, बलूचिस्तान में आजादी के लड़ाकों का समर्थन किया, बलूच भाषा में ऑल इंडिया रेडिया का प्रसारण शुरू किया आदि-आदि। प्रगाढ़ होते अमेरिकी-भारत संबंध से चीन और पाकिस्तान बौखला गये हैं। नरेंद्र मोदी की इस कूटनीतिक चाल से चीन व पाकिस्तान को बैक फुट पर आने को मजबूर होना पड़ा है। ठीक है, सावधानी जरूरी है। अमेरिका को मौकापरस्त कहा जाता रहा है। कूटनीति में तो ऐसा होता है कि जब अपने कॉमन दुश्मन से निपटने को दो देश आपस में हाथ मिलाते हों। जब भारत पर चीन और पाकिस्तान मिलकर शिकंजा कसने लगे, तब कूटनीतिक जवाब देना जरूरी था। भारत ने ऐसा किया। गुटनिरपेक्ष आंदोलन भारत की वैश्विक होते कद को विस्तारित नहीं कर सकता। यह कड़वी सच्चाई है जिसे मोदी सरकार बखूबी जान चुकी है। भारत इस इतिहास को ढोये नहीं चल सकता कि गुटनिरपेक्ष आंदोलन का भारत भी संस्थापक सदस्य था। इसमें बहुसंख्य तीसरी दुनिया के देश थे। जब तीसरी दुनिया ही अप्रासंगिक हो गया हो तो गुटनिरपेक्ष के क्या मायने?
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