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अद्भुत, अविश्वसनीय, अकल्पनीय। सावन के महीने में देवघर धाम में केसरिया सैलाब उमड़ पड़ा। जिधर नजर दौड़ायें, उधर कांवरिये। बोल बम से गूंजता भोले का शहर, शिव पुराण की चित्ताभूमि। मैं भी साक्षी बना। पहली यात्रा थी। सुल्तानगंज से चला तो जोश ठाठें मार रहा था लेकिन तीखी धूप, चुभती गर्मी ने होश ठिकाने लगा दिये। लगा तलवे पिघल जाएंगे। बमुश्किल तीन से चार किलोमीटर ही पैदल चला था कि कार की यात्रा करने को मजबूर होना पड़ा। दूसरी ओर झुंड के झुंड कांवरिये झूमते-गाते मस्ती में आगे बढ़े जा रहे थे। चकित था, यह कैसे संभव है। मैं चार किमी तक में जवाब दे गया और भगवाधारी शिवभक्त अथक, अविराम, अविचल हैं। महिलाएं, बच्चे, बूढ़े सब। कुछ तो दौड़े जा रहे हैं। ये डाक बम कहलाते हैं। कुछ डंडी बम हैं, मतलब जमीन पर लेटकर 45 से 60 दिनों में बाबा बैद्यनाथ के दरबार पहुंचेंगे। इसी सोच में मन-मष्तिष्क बेचैन था। कहां से आती है इतनी ऊर्जा, शारीरिक व मानसिक दोनों। यह भी गौर किया हजारों की भीड़ में बहुसंख्य ग्रामीण पृष्ठभूमि के हैं। पाई-पाई जोड़ तीर्थ पर निकले हैं। आधी उम्र पार हो गई, आधी को संवारने और परलोक सुधारने की मंशा लिए। बहुत पढ़े-लिखे नहीं। किसी तरह कमा-खाकर गुजारा करने वाले। आखिर कब से भागलपुर के सुल्तानगंज से कांवर लेकर सवा सौ किमी दूर देवघर जाने की शुरुआत हुई। कोई निश्चित प्रमाण नहीं है। क्या भक्तों के इस हठयोग पर भगवान प्रसन्न होते होंगे? विदीर्ण कर देने वाली पीड़ा पर मुस्कराते होंगे? यह समाज पर कर्मकांड के बढ़ते असर का परिचायक तो नहीं? भगवान बुद्ध भी तो तेजपुंज थे, छह-सात वर्ष तक कठोर तप किया, सिद्धि नही मिली, फिर उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई, दीन दुखियों की सेवा में लग गए, अष्टांगी मार्ग पर चले। नैतिकता की कसौटी पर सौ फीसद खरे उतर मानव धर्म का पताका फहराया। महावीर ने भी कुछ ऐसी ही शिक्षा दी। स्वामी विवेकानंद भी इसी कतार में रहे। सचमुच आस्था व विज्ञान दो छोर हैं। विज्ञान के मानक पर आस्था की लडिय़ां बिखर जाती है। सृष्टि का निर्माण किसने किया, यह अनसुलझा रहस्य है। सभी धर्म व समाज इतना भर कहते हैं, ब्रह्मांड का संचालनकर्ता एक है जो अदृश्य है लेकिन महान वैज्ञानिक स्टीफेन हॉकिंग अपनी पुस्तक ‘ग्रैंंड डिजाइनÓ में लिखते हैं, सृष्टि, ब्रह्मांड, जीवन का निर्माण स्वत: भौतिक शास्त्र के नियमों के अनुसार हुआ। हॉकिंग यह भी कहते हैं, हम एक औसत तारे के छोटे से ग्रह पर रहने वाले भर हैं। ङ्क्षहदू शास्त्रों में कहा गया है, भगवान शिव की उत्पति भी स्वत: स्फूर्त हुई है, इसलिए वह स्वयंभू(शंभू) हैं। अब यह मान्यता भर है। शिव कब से पूजे जाने लगे, यह किसी को नहीं पता। ऋगवेद में शंकर या शिव नामधारी कोई देव ही नहीं हैं। फिर बाद के कालखंड में कब शंकर हुए? इस विवाद में उलझे बिना इतना कहा जा सकता है कि आध्यात्मिक ज्ञान, उस परलोक की चिंता करता है जो रहस्य के गर्भ में है जबकि विज्ञान इहलोक की, जहां हम रहते हैं। कर्मकांड व अंधविश्वास को छोड़ दें तो ज्ञान-विज्ञान का सुंदर समन्वय हो सकता है। हम सेवाभावी रहें। बड़ी आबादी भूखे मर रही है। खाने को रोटी नहीं है, इनके लिए कुछ कर सकें तो इससे बड़ी पूजा नहीं होगी। अंतस में झांकें, ज्ञान के चक्षु खोलें। आस्थावान होने में कुछ गलत नहीं है, साथ में विज्ञान के नजरिए से भी चीजों को जानें, समझें।
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